सुनो राम
 

 
सुनो राम !
वन ही अच्छा था

परंपरा के हर बन्धन से
विचलित स्वर के नव वंदन से
शबरी का स्वागत
सच्चा था

शून्य पड़ चुके हृदय भाव से
तल में फूटी स्वर्ण नाव से
स्वर्ण हिरण का तन
सच्चा था

कूटनीति की परछाईं से
अग्नि वृक्ष की नम छाईं से
त्रिजटा का मन ही
सच्चा था

सिंहासन की राजनीति से
शक पर जीवित प्रजा भीति से
रावण का छल ही
अच्छा था

- कल्पना मनोरमा
१ अप्रैल २०१९२२ अप्रैल २०१३

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