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पिता उन दिनों
पिता जैसे नहीं हुआ करते थे
रौब और ख़ौफ़ से रिक्त पिता
बच्चे की तरह निश्चिंत और खुश रहते
हम मस्ती में चढ़ जाते कंधों पर उनके
छूते निडरता से मूँछें उनकी
उन्हीं की छड़ी से उनको पीटने का अभिनय करते
चुपके से गुदगुदाकर पिता को
खोल देते खिलखिलाहट की टोंटी
हँसी से नहा जाता था घर!
नीव, दीवार, छत थे पिता
घर थे पिता!
एक दिन अचानक लौटे पिता घर
अजनबी और डरावना चेहरा लिए
हम दुबक गये घर के कोनों में
छड़ी उठा कर घूरने लगे शून्य में
नीव,दीवार और छत डरने लगे
घर लौटे पिता से
डबडबाने लगा टेबल पर रखा चश्मा उनका
चुप्पी उनकी सीलन बन बैठ गई दीवारों में
उस दिन
शहर और दुनिया में
कुछ घटनाएँ घटी थीं एक साथ
एक नाबालिग लड़की के साथ हुआ बलात्कार
दो बेटों ने बूढ़ी माँ के एवज में चुनी जायदाद
सोमालिया में पैंतालीस लाख बच्चे भूख से मरने को थे
और शकरू मियाँ का नौजवान बेटा घर खत छोड़ गया था!
--निरंजन श्रोत्रिय!
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