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ओ पिता !
लगा है एक युग मुझे,
पहचानने में तुम्हें
हे पिता !
पीड़ा दी है
बहुत तुम्हें ..
स्वयं को त्यागी..
महान और वीतरागी,
सिद्ध करने के दर्प में,
क्षमायाची .. ढूँढता हूँ
तुम्हारी गोद ,..
सब कुछ भूल,
आश्वासन बचपन का,
आज फिर …
चिपट कर लिपट कर
रोना चाहता हूं ..
और पुकारता हूं..
हे पिता !
लगा है एक युग मुझे
पहचानने में .. तुम्हें,
दर्द से आकुल …
सीने से उठता ज्वार
फूट पड़ता है आंखों से,
और तभी …
केवड़े की गंध से
भर जाता है मेरा कमरा,
खिड़की से प्रवेश करता है
हवा का एक झोंका
मेरे आँसू सुखाने लगता है.
श्रीकांत मिश्र कांत
९ जून २००८
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