कुछ नहीं कहते
न रोते हैं
दुख
पिता की तरह
होते हैं
इस भरे तालाब से
बाँधे हुए
मन में
धुआँते से रहे ठहरे
जागते तन में
लिपट कर हम में
बहुत चुपचाप
सोते हैं।
सगे अपनी बाँह से
टूटे हुए
घर के
चिता तक जाते
उठा कर पाँव
कोहबर के
हम अजाने में जुड़ी
उम्मीद
बोते हैं।
- अनूप अशेष
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