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तेज़ हवा पर सवार पत्ती को देख
समय ने कहा,
"रुको, इतनी पुलकित-सी कहाँ
उड़ी जा रही हो
तुम्हें तो श्रीहीन और क्लांत होना चाहिए था
डर नहीं लगता तुम्हें
उस अनजाने भविष्य से
दुख नहीं होता
अपनो से बिछुड़ने का?"
पत्ती सहमी, थमी, फिर मुड़ कर बोली,
"मत उपहास करो मेरे विश्वास का
उस स्नेहिल अतीत का
जिसकी एक एक शाखा ने
मुझे सींचा और सँवारा है
मेरी हर सोच को निखारा है
बिछुड़ते समय
बूढ़े वृक्ष ने कहा था,
"मत रो मेरी लाडली
कर्तव्य पथ के राही
मुड़ कर नहीं देखा करते
जैसे आज तक
तेरे लिए जिया हूँ
वैसे ही जिऊँगा
तेरी यादों में, सोचों में
तेरे साथ साथ रहूँगा
मूल में अंश
और हर अंश में
मूल छिपा होता है
इस तरह से आज
हम दोनो ही अमर हैं।
प्रेम का बंधन तो
बहुत ही भारी है
जलता रहता है दिया
जब बाती बुझ जाती है।"
- शैल अग्रवाल
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