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पिता के लिये
पिता को समर्पित
कविताओं का संकलन
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दुर्दशा मानवता की |
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हाय दुर्दशा
मानवता की
क्या से क्या रंग लायी,
बूढ़े मातु पिता को रोटी
देने से कतरायी।
जिनके सीने
पर सो बीती
शैशव की दोपहरी,
जिनके कंधे
पर चढ़ फूटी
तुतलाती स्वर लहरी,
उनको बोझ समझ बैठी मन
तनिक नहीं शरमायी।
पले बढ़े
जिनके हाथों से
खाकर नित्य निवाले,
जिनकी पूँजी
से पढ़ लिखकर
हुये कमाने वाले,
उनका तन ढकने को कपड़े
लेने से सकुचाई।
जिनके अरमानों
के संग संग
पलकर बड़ी हुई थी,
बैंयाँ बैयाँ
चलते चलते
उठकर खड़ी हुई थी,
बिना व्यवस्था
छोड़ उन्हें घर
करने चली कमाई।।
- शीलेन्द्र सिंह चौहान
१५ सिंतंबर २०१४ |
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