क्षमा करें,
कुछ कर न सके सत्कार, पितर!
तिल-जल का तर्पण कर लें स्वीकार,
पितर !
अनुभव तुमने दिया,
उमंगों में मैं हूँ
तुम थे खुली किताब,
सुरंगों में मैं हूँ
हर झगडे में तुमने
बीच-बचाव किया,
दुनिया की अब
भीषण जंगों में मैं हूँ
शंकित हूँ,
क्या यही अंजुली अंतिम है
रोज़ तेज है शस्त्रों की झंकार,
पितर !
आज खण्डहर हुए
भव्य वे भवन सभी
किये लोक-मंगल को
तुमने हवन कभी
क्या मकान की कहें,
शहर भी नहीं बचे
हुए व्यर्थ इनकी रक्षा के
जतन सभी
गीत ख़ुशी का
तुमने हमें सिखाया था
पर मन-वीणा के विषण्ण हैं तार,
पितर!
चुप कर दीं बम ने
कुछ चीखें भी कातर
कौन करेगा कल को
पितरों का आदर
देखो-देखो,कल का समय
भयंकर है
घेर रहें हैं नभ को
विपदाओं के पर
अपने ही गम के घुन से
नित घुना गया
वंश-वृक्ष अब रहा नहीं छतनार,
पितर!