अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

रंग

 

  मौन है सब
आवाज़ की पहचान से
वाकिफ़ नहीं हूँ मैं
शब्द हैं
हर ओर बिखरे हुए
जिन्हें सुन सकने में
नाकामयाब हूँ मैं।

पर
उनकी मौजूदगी से नावाकिफ़ नहीं
स्पर्श करना जानती हूँ मैं
उन चिल्लाते हुए शब्दों को
और समझ सकती हूँ
उनके दिल की वह बात भी
जो वो कह नहीं पाते

स्पर्श ही से देखा भी है मैंने
इस जहाँ को
बहुत करीब से
हर शह की तस्वीर खींची है
मैंने अपने स्पर्श से ही

रंगहीन है हर तस्वीर
और चारों ओर ऐसा घुप्प अंधेरा
कि खो बैठे
रोशनी अपना अस्तित्व
और रंग अपना जीवन

यही स्पर्श हैं
जो मुझे आवाज़ भी देते हैं
शक्ति देते हैं बोल सकने की
अहसास दिलाते हैं मुझे
कि केवल मौन ही नहीं है सब
केवल अंधेरा ही नहीं है चारों ओर

इस खामोश अंधेरे के बीचो बीच
खड़ी हूँ मैं
अकेली
खुद से बातें करती हुई
रोशनी की राह चलती हुई
और बस इतना ही सोचती हुई
रख भरोसा की एक दिन मिलेगी तुझे भी मंज़िल
ये समंदर भी तो किन्हीं साहिलों ही से घिरा होगा

- साकेत

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter