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फागुन : तीन अनुभूतियाँ

 

  एक

उँगलियों के पोरों से
छूती हूँ रंगों को
और वे जीवित हो उठते हैं
हँसते हैं, नाचते हैं
किलकारियाँ भरते हैं
ज्यामितीय रेखाओं की
कैद को तोड़ कर
खुली आसमान में उड़ते हैं
मैं छोड़ देती हूँ
अपनी कल्पनाओं को आज़ाद
दे देती हूँ उन्हें
उड़ने को
सारा आकाश

दो

तुमने डाला था मुझपर
जब मुठ्ठी भर
प्यार का गुलाल
तमाम दुनिया
दिखी थी मुझे
तुम्हारे रंग में ही
रंगी हुई

तीन

बूँदे बरस गईं
फागुन की आस में
आमों के बौर महके
हवाओं के कण-कण में
बौराया मन भटका
गाँवों की गलियों में
और, पगलाई कोयल
खोजती है किसको?

-प्रत्यक्षा

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