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मन महके

 

  जब तै बगियन मैं बगर्यौ बसंत
महंतन के मन महके, बन-उपबन महके
सुधि आए विदिसिया कंत।
महंतन के मन महके।।

खेत-खेत सरसों हिलै औरु जमुहारै
भौरन कौ देखि कै अंगुरियाँ हिलाबै
निरखि पाँव भारी,
मटर प्रान प्यारी के
गेहूँ हुइ गए संत
महंतन के मन महके।।

देखि खिले फूल, मनु फूलों ना समाबै
अनछुई सुगंध, अनुबंध तौरे जाबै
मुँह बिदुराबै, अंगूठा दिखाबै-
ललचारै हवा
दिग-दिगंत।
महंतन के मन महके।।

शब्दन नैं आढ़ि लिए गंध के अंगरखे
पालकी में बैठ गीत निकसि परे घर से
छंद-मुक्त कविता से
उकसे बबूल-शूल
मुकरी सों मादक बसंत
महंतन के मन महके।।

-डॉ जगदीश व्योम

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