अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

दो छोटी रचनाएँ

 

 

धूप हो गई गुनगुनी

चला बोरिया बाँध शरद घर,
और धूप हो गई गुनगुनी
सुबह जागी धुंध चीरकर
और भोर हो गई लावनी
मदन रंग का आँचल फहरा,
खेतों पर फिर यौवन आया
गगरी खनकी फिर पनघट पर,
सकल धरा हो गई फागुनी।

मैं तुझ पर बलिहारी

एक बार फिर जाऊँ फागुन,
मैं तुझ पर बलिहारी

ब्रज के रसिया, मथुरा गोकुल, नंद गाँव बरसाना
गेहूँ बाली साग चने का, धान भूनकर खाना
सरसों, दुआँ, तारामीरा,
टेसू, भंग पिचकारी

खेत ट्रैक्टर, ट्यूब वेल हिरयाली पीले फूल
हरी गुलाल, भुड़भुड़ी अभ्रक, रंगी पंथ की धूल
कोड़ा सोंटा महका महुआ,
इक गोपी ब्रजमारी

-राकेश खंडेलवाल

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter