अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

बसंत बनाम वैलेंटाइन

 

  तन में तरंग उठे मन में उमंग उठे,
वसंत ने मदन का एक बाण चलाया है,
गली-गली में नाच रहे नर और नारी,
घोर वैरागी का मन भी भरमाया है।

गाँव के आँगन में फुदकती है चिरैया,
जिसकी हर फुदकन पर चिरौटा लुभाया है,
थिरक-थिरक झूम-झूम नाचते हैं मोर,
निष्ठुर मोरनी ने उनका चैन चुराया है।

कलियों के गालों पर छाई है लाली,
पुष्पों ने प्यार से पीत पराग बरसाया है,
सरसों ने ओढ़ ली है पीली प्रीत चादर,
आमों का प्रत्येक अंग-अंग बौराया है।

प्यार भरे नैना हो रहे हैं चार,
मेरे गाँव की बयार ने प्यार का गीत गाया है,
चहुँदिश बरस रही है रस की फुहार,
सुना है मेरे गाँव में फिर वसंत आया है।

दरोगा के बेटे की हिमाकत तो देखो,
पड़ोसिन आंटी को अपनी वैलेंटाइन बनाया है,
बेधड़क कहता है आंटी हैं तो क्या हुआ,
मैंने तो दिल का तार से तार मिलाया है।

इस ज़माने के सीनियर सिटीज़नों पर कौन कम,
वैलेंटाइन डे का नशा छाया है?
किसी पर डोरे डालने को ही तो,
वसंत के बहाने पुरानी टाई को पीला रंगवाया है।

-महेश चंद्र द्विवेदी

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter