केलो के पथरीले तट से
अरपा के रेतीले तट तक
हसदो की कंचन रेती से
लीलागर के प्रेमिल पग तक
मन भटका करता पल छिन!
रह-रह उगते यादों के दिन
फटे लिफाफे से निकले हैं
करियाए कुछ शब्द कठिन
साधुवाद मैं किसको दे दूँ
इच्छाएँ सब हुईं मलिन
कहाँ चल दिये मुझे छोड़कर
डस्टर, चाक, रजिस्टर के दिन
ऊँचे स्वर में जन गण मन का
गाया जाना भूल चुका
घंटी से निकली आवाजें
शोर-शराबा भूल चुका
वाद-विवाद, प्रार्थना, उत्सव
कहाँ खो गए वे सारे दिन!!
नाटक, कविता, खेल-कूद और
पिकनिक उत्सव कहाँ गये
सुख-दुख के वो संगी साथी
सभी नदारद आज हुए
सपनों में दस्तक देते हैं
चंपा और गुलाबों के दिन!!
- श्रीधर आचार्य "शील"
१ सितंबर २०२४ |