नींव गहरी खोदनी है
फावड़ा ख़ुद है चलाना
शीश पे तसला उठाना
ढो परत दर परत ईंटें
मंजिलों तक लेके जाना
हो रहा श्रमदान मेरे गाँव
विद्यालय बनेगा
अलख शिक्षा की जगानी
ज्योति पग-पग पोहनी है
बैठ छप्पर में पढ़े हम
मुंशी-मास्टर के गढ़े हम
ज्ञान का अवदान, संस्कृति
साधते सीढ़ी चढ़े हम
मूल्य जो गुरुवर से पाया
नव सृजन में ढालना है
साधना प्रत्यर्पणा
परिकल्पना नव पोसनी है
गुरू बिना जीवन अधूरा
कढ़ नहीं सकता कँगूरा
भित्ति का प्राचीर कंपित
बन न पाता भवन पूरा
जानते वे खिड़कियों को
है कहाँ आकार देना
ईंट कितनी किस जगह पर
किन द्रवों से जोड़नी है
- जिज्ञासा सिंह
१ सितंबर २०२४ |