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        नभ में उड़ी पतंग

 
नभ में उड़ी पतंग
रंग बहु लेकर

देख रहा आकाश हृदय निज थामे
ऊँचाई के देश लिखे किस नामे
स्वागत करना छोड़ हुआ भौंचक्का
उसके सारे देव फँसे दुविधा में
लहर-लहर पवमान चकित है देखो
बढ़ती रही पतंग
नाव निज खेकर

भू के सारे स्वप्न छोड़ तहखाने
चढ़े गगन तक उच्च कि धौंस जमाने
युग-युग सोए देव नींद में गहरी
उनको बढ़ी पतंग तुरंत जगाने
वामन का था स्वप्न त्रिलोकी नापे
छूती नीलाकाश
कि हाथ बड़े कर

कट जाएगी डोर साथ में सबकी
फूटे फिर किस रोज़ न जाने मटकी
साधेंगे निज पाँव बढ़ेंगे आगे
रस्सी जैसे आज बँधी हो नट की
कटना भी मंज़ूर स्वप्न कब छोड़ा
अपने बनते काम
ज़रा ले-देकर

- पंकज परिमल
१ फरवरी २०२१

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