अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

       पतंग की पुकार

 
बन गयी पतंग से खेल आज
फिर भी सुख देती हूँ अपार

मत मानो कटी पतंग मुझे
कर दूँगी अबके दंग तुझे
रहती हूँ सबके आस-पास
देकर तो देखो इक पुकार

अब बिना डोर के कागज के
मैं उड़ती हूँ मोबाइल में
छत नहीं, न शुद्ध हवाएँ हैं
फिर भी उड़ती हूँ आर पार

देखो तो मेरे विविध रंग
चालें चलने का नया ढंग
शृंगार करे बैठी हूँ मैं
चरखी-माँझे से भी करार

नहिं भय गिरने या कटने का
नहिं धूप शीत या फटने का
हर जगह उपस्थिति है मेरी
प्रतियोगिताएँ हों या त्योहार

- मधु संधु
१ फरवरी २०२१

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter