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       गिरकर उठे पतंग

 
नील गगन में जब उड़े गिरकर उठे पतंग
दे जाती हर बार ही मन को नयी उमंग

गिरना औ' उठना सभी इस जीवन के अंग
सिखलाने हमको यही नभ में उड़े पतंग॥

अभी-अभी देखी यहीं झट से उड़ी पतंग
मतवाली-सी झूमती छेड़े अजब तरंग

बच्चे-बूढ़े झूमते मन में भरी उमंग
डोर सहारे नाचती नभ में उड़ी पतंग

झट से तुमने काट दी नभ में तनी पतंग
कहाँ कटे मन की पतंग वो तो मस्त मलंग

इधर-उधर उड़ता फिरा मन हो गया पतंग
जग की माया से विरत लेकिन रहा मलंग

पेंच लड़ाएँ जीत लें हर बाजी हर बार
मन पतंग संग बावरा कभी न माने हार

यों तो नभ में दिख रही सबकी अलग पतंग
लेकिन गुपचुप बाँटती समरसता के रंग

जीवन में खिलते रहें खुशियों के सब रंग
उम्मीदों की डोर से नभ में उड़े पतंग॥

- सुबोध श्रीवास्तव
१ फरवरी २०२१

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