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बमों गोलियों बंदूकों की छाया में
 
बमों, गोलियों, बंदूकों की छाया में
नया वर्ष भी
क्या कराहता आएगा

उन्मादी उद्घोष
पीढ़ियाँ सिसक रहीं
धर्म-युद्ध चल रहा
धमकियों, बोली से
मानवता को कुचल रहे
हैवानों को
उत्तर मिला नहीं
गोली का गोली से
चीखों की आवाज अभी तक गूँज रही
क्या भविष्य भी
फिर अतीत दोहराएगा

सीमाओं को छोड़
धरा की बात करो
खून कहीं पर बहे
चीखती मानवता
अंगारों पर चलने के
संकल्प बिना
नहीं मिटी है
नहीं मिटेगी दानवता
मुस्कानें, किलकारी बची रहें भू पर
तभी समय भी
घावों को सहलाएगा

जो संकीर्ण कामना से
धरती तक को
बाँट रहे नस्लों
मजहब के खानों में
नए वर्ष का हर्ष
मनाने से पहले
भेजें उनको उनके
सही ठिकानों में
पीड़ित मानवता के पक्षधरों का ही
स्वर मिलकर ऊँची
हुंकार लगाएगा

- जगदीश पंकज
२९ दिसंबर २०१४

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