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बैठा काल बहेलिया |
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बैठा काल बहेलिया फैला
जीवन-जाल।
बरस-बरस गिरते रहे दिवस, महीने, साल।
अपना-सपना सब गया रखा जिसे भी पाल
समय-पखेरू उड़ चला फँसा रह गया साल।
जान-माल औ चाल से रहा बहुत बेहाल
साल-साल कर सालता रहा सालभर साल।
मँहगाई की मार से गीला आटा-दाल
क्या बोलें, कैसे गया-गुज़रा-बीता साल?
समय-सँपेरे का सखे देखो काम कमाल!
जब जिसको चाहे पकड़ देता ज़हर निकाल।
पिद्दी सा प्यादा चला अटक-अजूबी चाल
सत्ता की शतरंज में पिटा वज़ीरी साल।
पर मन का मौसम कहाँ, माना, लिया निकाल
कसता है फिर-फिर समय-सारंगी पर साल।
पल-पल नूतनता रहे दिल-दिल हो खु़शहाल
सबके शुभ की कामना रहे चकाचक साल।
- शालिनी श्रीवास्तव
५ जनवरी २०१५ |
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