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खिड़कियों के पार
 
खिड़कियों के पार का मौसम बदलता है
मगर मन के शून्य में कुछ
और चलता है

यह दिसम्बर
रहे या फिर जनवरी आये
भीड़ को गोवा या केरल मदुरई भाये
जहाँ दरिया है वहीं टापू
निकलता है

फूल से
जादा उँगलियों की महक भाती
धुंध में आकाश में चिड़िया नहीं गाती
घने बादल चीरकर सूरज
निकलता है

ये पेड़
आँधी या बवंडर से नहीं डरते
विषम मौसम में नहीं ये ख़ुदकुशी करते
मौन से संवाद कर लेना
सफलता है

-जयकृष्ण राय तुषार
३० दिसंबर २०१३

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