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अभी चीखता साल गया है
 
अभी चीखता साल गया है
कानों में है दर्द अभी

चलो करें कुछ ऐसा जिससे
स्वप्न पात हरियायें फिर
नयनों में हो
प्रेम कजरिया
छुप-छुप के बतियायें फिर
हर घर में फिर उजियारा हो
हर द्वारे पर दीप जलें
आँख बने ना
सागर कोई
नदिया का ना नीर ढले

आँगन में पसराई पीड़ा
अँखियों में है गर्द अभी

मुस्कानों की चिट्ठी फिर से
अधर-अधर को दे आएँ
फिर बसंत
हर मन में झूले
गम सबके चल ले आएँ
छप्पर रोटी पुस्तक कपड़े
का हो कहीं अकाल नहीं
नव-वर्ष की
नव बेला में
कोई न हो बेहाल कहीं

आज सियासी बेदर्दी से
तन-मन भी हैं ज़र्द अभी

-गीता पंडित
३० दिसंबर २०१३

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