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नये साल की आहट पाकर
 
इन गुलाब की पंखुड़ियों पर
जमी ओस की बुँदकी चमकी
नए साल
की आहट पाकर
उम्मीदों की बगिया महकी

रही ठिठुरती साँकल गुपचुप
सर्द हवाओं के मौसम में
द्वार बँधी
बछिया निरीह सी
रही काँपती घनी धुँध में

छुअन किरण की मिली सबेरे
तब मुँडेर पर चिड़िया चहकी

दर-दर भटक रही पगडंडी
रेत-कणों में राह ढूँढती
बरगद की हर
झुकी डाल भी
जाने किसकी बाँट जोहती

एक उदासी ओढ़े थी जो
नदिया की वह धारा हुमकी

-बृजेश नीरज
३० दिसंबर २०१३

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