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नव वर्ष से फिर आस है
 
आनन्द है उल्लास है
नववर्ष से फिर आस है

झर रहे हैं पात अविरल
डालियाँ डूँड़ी हुयीं
चलती फिरती ठठरियों की
बस्तियाँ बूढ़ी हुयीं
भूख ढाढस नूरा-कुश्ती
फागुनी परिहास है

कुछ नहीं बदला
जहाँ पर थे वहीँ पर हैं पड़े
उत्तरों की बाट तकते
प्रश्न ज्यों के त्यों खड़े
ढह रही उम्मीद पलछिन
खो रहा विश्वास है

बुझ चुकी है आग
भुलभुल के सहारे
बन्द कमरे की
खुली खिड़की निहारे
मधुमयी मधुमास में
कुछ सुरमयी संत्रास है

-अनिल कुमार वर्मा
३० दिसंबर २०१३

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