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वक्त बूढ़े नीम सा
 

फिर समय का देखिये, नटखट परिंदा,
अंकों के इक खेल से
बहला रहा है
पल, दिवस और माह वाला इक शिशु,
साल बन आने को अब
अकुला रहा है

वृक्ष के कुछ पात पीले,
पक रहे हैं,
झर रहे हैं
और नव पल्लव शिशु
दृग खोलने से
डर रहे हैं
कल इन्ही शाखों पे
कलियाँ खिलेंगी,
फूल शायद इसलिए कुछ हौले से
कुम्हला रहा है

वक्त की धारा कभी क्या
थम सकी है?
कोई नदिया कब मुहाने
पर रुकी है?
माना छिलता है नदी का तन
मगर, बहना तो है
है समय मुश्किल मगर संग
आस का गहना तो है
घाव सुविधाओं के दामों ने दिए जो,
वक्त बूढ़े नीम सा
सहला रहा है

-- सुवर्णा दीक्षित
३१ दिसंबर २०१२

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