बीते दिसंबर तुम गये
लेकर बरस के दिन नए
पीछे पुराने साल का
जर्जर किला था ढह गया
मैं फिर अकेला रह गया
ख़ुद आ गये
तो भा गए
इस ज़िन्दगी पर छा गए
जितना तुम्हारे पास था
वह दर्द मुझे थमा गए
वह प्यार था कि
पहाड़ का
झरना रहा जो बह गया
रे साइयाँ, परछाइयाँ
मरूभूमि की ये खाइयाँ
सुधि यों लहकती
ज्यों कि लपटें
आग की अँगनाइयाँ
हिलता हुआ
पिंजरा
टँगा रह गया, पंछी दह गया
तुम घर रहो बाहर रहो
ऋतुराज के सर पर रहो
बौरी रहें अमराइयाँ
पिक का पिहिकता स्वर रहो
ये बोल
आह-कराह के
हारा-थका मन कह गया
दिनेश सिंह
३१ दिसंबर २०१२ |