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नए वर्ष की अगवानी में
 

देखो देखो
शीत का ओढ़ दुशाला
सस्मित विस्मित सा
पथिक सा
... चला आ रहा है
शहर गाँव- बस्ती
नदी- खेत- पोखर पर
चिड़िया सा
चहचहा रहा है
यह मंजुल प्रकाश भर
पंखुड़ियों को धरा पर
बिखरा रहा है
जाफरानी हवाओं सा
डाल- डाल पात- पात पर
तितली सा मंडरा रहा है
वसुधा में कर परिवर्तन
कोमल वत्सल सा
शीत अविरल सा
नदी, बादल
समुन्द्र, पहाड़ पर
ओस कण की
बन्दनवार सजाकर
आत्ममुग्ध सा
स्वच्छ शुची उद्गम ले
नववर्ष मनभावन सा
आशाओं की किरणों का
हाथ थाम मुस्कराता
चला आ रहा है !

- सरस्वती माथुर
 

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