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एक वर्ष और कम हुआ
 

कुंठा संत्रासों का
निर्मम उपहासों का
एक वर्ष और कम हुआ

अंतहीन चुभते परिसंवादों
के घेरे
ज्योति स्वयं ले
अपनो ने दिये अँधेरे

प्रतिपल आघातों का
गरल बुझी बातों का
मौसम कितना गरम हुआ

भीतर सावन
बाहर वासंती बयारें
हर समय समर्पण की
माँग ही सँवारें

मन उल्कापातों का
दर्द की जमातों का
शूली पर तन नियम हुआ

लोटे अंगारों पर
याचना अधूरी
खंडित विश्वासों में
और बढ़ी दूरी

जीवन खंडन मंडन
साँपों में है चंदन
जीने का नित्य भ्रम हुआ

--मधुकर अष्ठाना
 

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