एक-
हर बार कैलेन्डर आखिरी पन्ना
हो जाता है सचमुच का आखिरी
हर बार बदलती है तारीख
और हर बार आदतन
उंगलियाँ कुछ समय तक लिखती रहती हैं
वर्ष की शिनाख्त दर्शाने वाले पुराने अंक।
हर बार झरते हैं वृक्ष के पुराने पत्ते
हर बार याद आती है
कोई भूली हुई - सी चीज
हर बार अधूरा - सा रह जाता है कोई काम
हर बार इच्छायें अनूदित होकर बनती हैं योजनायें
और हर बार विकल होता है
सामर्थ्य और सीमाओं का अनुपात।
हर बार एक रात बीतती है -
कु्छ - कुछ अँधियारी
कुछ - कुछ चाँदनी से सिक्त
हर बार एक दिवस उदित होता है -
उम्मीदों की धूप से गुनगुना
और उदासी के स्पर्श क्लान्त।
दो-
हर बार
बार - बार ऐसा होना आखिरी बार लगता है
क्या कहा जाय इसे?
अगर कबीर का एक शब्द उधार लूँ
तो कहना पड़ेगा - 'माया'
और अगर निराला के निकट जाऊँ
तो 'जलती मशाल' जैसे दो शब्दों में कही जा सकेगी बात।
छोड़ो भी
ये सब किताबी बातें हैं शायद
नाकारा लोग इनसे करते हैं अपना दिमाग खराब
आओ खराब शब्द का तुक शराब से मिलायें
नाचें
गायें
पीयें
खायें
अघायें
उल्टियायें
गँधायें
दिखा दें अपनी सारी कलायें
और भूल जायें कि बाहर काली रात कर रही है सायँ - सायँ।
तीन-
स्वयं के अस्तित्व से
भारी हो गई है शुभकामनाओं की खेप
हैप्पी- -हैप्पी के हर्षातिरेक में
उभ-चुभ कर रहा है सारा संसार।
सर्दियों की रात है ओस और कुहासे से भरी
ऊँचे पहाड़ों पर शायद गिरी है बर्फ़
तभी तो कड़ाके की ठंडक यहाँ तक आ रही है नंगे पाँव।
ग्लोबल वार्मिंग की बहस और बतकही के बावजूद
अभी बचा हुआ है बहुत सारा सादा पानी
आओ पौधों को थोड़ा सींच दें
नही तो उन्हें मार डालेगा पगलाया हुआ पाला।
माना कि जश्न की रात है
मगर इतना तो मत करो शोर
कि उचट जाए
घोंसले में दुबके ( बचे खुचे) पक्षियों की नींद
उन्हें सुबह काम पर जाना है
और नए साल में नए घोंसले के लिए नया तिनका लाना है।
--सिद्धेश्वर सिंह
३ जनवरी २०११ |