थके उनींदे शिथिल कंधों पर
ओढ़ ओढ़ नई शाल
फुदक फुदक कर चिड़िया जैसा
फिर आया नव साल
सागर और मगरमच्छों ने
फिर से किये करार
छोटी मछली से फिर छीने
जीने के अधिकार
बूढ़े कृश मेंढक कछुओं को
देंगे देश निकाल
आशाओं के सपने बोये
छल के बखर चले
जहाँ फूल पैदा होना थे
बस काँटे निकले
रहे बेशरम खड़े पहरुये
हुआ न कोई मलाल
तृष्णा आशा मोह भरे हैं
आँगन मन मंदिर
करुणा दया प्रेम से खाली
ठगे ठगे से घर
संवेदन भी खंड खंड हैं
हृदय हुये कंगाल
- प्रभुदयाल श्रीवास्तव
३ जनवरी २०११ |