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नव वर्ष अभिनंदन

वर्षांत

          स्वागत करुँ सियापा रोऊँ नए साल का
उपभोक्ता बन जाऊँ या उत्सव विशाल का

यदि यह केवल अनुकृति है गत संवत्सर की
यदि अकुंठ आवृत्ति विगत के पाप प्रखर की

यदि नरमेध विश्वव्यापी है अनतिक्रम्य है
बर्बर पश्चिम युद्धमत्त है तदपि क्षम्य है

तो उस काल-कुंड में स्वाहा हो नव वत्सर
जहाँ गया गत वर्ष करोड़ों लाशें चढ़कर

किंतु लिए आए पौरुष का आसव यदि वह
यदि संघर्षरत नर को करे तिलक मृत्युंजय

मुक्ति काम प्रतिबद्ध मनुज की स्वागतेय वह
वह वत्सर प्रणम्य जो लाए साम्राज्य क्षय

जो नर को दे शक्ति अमित संकल्प मुक्ति का
भस्म करे जो हिंसा का तांडव निःसंशय

इंदुकांत शुक्ल
२९ दिसंबर २००८

  

साल आया है नया

फटे मोजे,
पाँव की उँगली दिखाई दे रही
साल आया है नया
दुनिया बधाई दे रही!

रोटियाँ ठंडे तवे पर
आग पानी-सी लगे
ज़िंदगी कब तक बताओ
मेहरबानी-सी लगे
बीतकर भी एक बीती धुन
सुनाई दे रही!

दूध-सा फटना दिलों का
साल-भर जारी रहा
हर नशा उतरा चढ़े बिन
सिर मगर भारी रहा
ज़िंदगी फिर बंद घड़ियों को
कलाई दे रही!

आपसी रिश्ते रहे
काई लगी दीवार-से
रह गए हम भुरभुरे
संकल्प की मुट्ठी कसे
उम्र पतली ऊन को
मोटी सलाई दे रही!

लगे उड़ने बहुत सारे सच
हवा में चील से
कई अफ़साने बिना जाने
दिखे अश्लील से
सुबह भी अब
सुबह होने की सफ़ाई दे रही!

मंज़िलों के नाम
उलझे रास्ते ही रह गए
बहुत नन्हे मोड़ भी
बस खाँसते ही रह गए
माँ की खाली पेट
बच्चों को दवाई दे रही!

डबडबाई आँख
हर तारीख को पढ़ती रही
बदचलन-सी सांस
अपनी सांस से लड़ती रही
रात, दिन को देह की,
सारी कमाई दे रही!

यश मालवीय
२९ दिसंबर २००८

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