अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

नव वर्ष अभिनंदन
2007

 नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

 

 

आमों पर खूब बौर आए
भँवरों की टोली बौराए
बगिया की अमराई में फिर
कोकिल पंचम स्वर में गाए।
फिर उठें गंध के गुब्बारे
फिर महके अपना चंदन वन
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

गौरैया बिना डरे आए
घर में घोंसला बना जाए
छत की मुंडेर पर बैठ काग
कह काँव-काँव फिर उड़ जाए
मन में मिसिरी घुलती जाए

सबके आँगन हों सुखद सगुन।
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

बच्चों से छिने नहीं बचपन
वृद्धों का ऊबे कभी न मन
हो साथ जोश के होश सदा
मर्यादित बने रहें जन मन
ऐसे दुख कभी नहीं आएँ
बदरंग हो जाए घर आँगन।
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

घाटी में फिर से फूल खिलें
फिर रुके शिकारे तैर चलें
बह उठे प्रेम की मंदाकिनी
हिमशिखर हिमालय से पिघलें।
सोनी मचले महिवाल चले
राँझे की हीर करे नर्तन

नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

विज्ञान ज्ञान के छुए शिखर
पर चले शांति के ही पथ पर
हिंदी भाषा के पंख लगा
कंप्यूटर जी पहुँचें घर-घर।
वह देश रहे खुशहाल 'व्योम'
धरती पर जहाँ प्रवासी जन
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन

डॉ.जगदीश व्योम

 

नया कलैंडर

अपने घर की मेरे समान ही बूढ़ी होती दीवार पर टंगे हुए उस कैलेंडर में
एक तारीख़ को मैं हर दिन काट देता हूँ
आज जब नहीं बची कोई तारीख़
तो मुझे महसूस हुआ कि किसी अनचाहे मेहमान-सा दबे पाँव
बिना किसी पूर्व सूचना के आ गया है नव वर्ष, एक नवीन वर्ष
यानी मुझे फिर इस दीवार पर
टाँगने के लिए एक नया कैलेंडर लाना होगा।
कभी-कभी सोचता हूँ मैं
कि ये समय क्यों चलता रहता है
अपनी एक निर्धारित गति से
क्या कभी इसकी भी इच्छा नहीं होती
कि ये भी चले कभी तेज़ और कभी धीमे

जैसी इसकी मर्ज़ी चाहे।
यह क्यों निर्धारित है
कि साठ सेकेंड का ही एक मिनट होगा
कि साठ मिनट का ही होगा एक घंटा
कि चौबीस घंटों से ही पूरा होगा एक दिन
और तीन सौ पैंसठ दिनों के बाद
एक बरस बीतेगा क्यों निर्धारित है यह
क्या हम अपनी इच्छा से अपने मिनट
घंटे और दिन तय नहीं कर सकते?
एक ही दिन क्यों शुरू हो सबका नया साल
इससे मुझ जैसे लोगों को
कितनी तकलीफ होती है
जिन्हें एक अनचाहे मेहमान की तरह
आने वाले नये साल का करना पड़ता है
अनचाहा स्वागत।
क्या ऐसा नहीं हो सकता

कि यह नव वर्ष तब ही आए
जबकि मैं पहले से ही तैयार रहूँ
इसके स्वागत के लिए
उत्साह उमंग और उल्लास के साथ।
वर्ष
क्यों नहीं बदलता मेरे लिए मेरे हिसाब से
क्यों होता हैं ऐसा कि जब मैं चाहता हूँ
समय धीरे-धीरे चले
तो नया साल आ जाता है बहुत जल्दी
और जब मैं चाहता हूँ कि
पलक झपकते ही गुज़र जाए समय
तो नया साल हो जाता है
परदेस गया बेवफ़ा पिया।
मैं नहीं चाहता कि मेरी अनुकूलता के बग़ैर
चला आए नया साल मेरे जीवन में।
फिर भी उठकर मुझे
अपने द्वार पर खड़े नए साल का
करना ही होगा स्वागत
क्योंकि समय तो अपनी गति से चलता है
किसी ग़रीब की अनुकूलता के लिए
वह कहाँ ठहरता है मेरे लिए भी
नहीं बदलेगा वह अपनी गति
अब चाहे इच्छा हो या ना हो
उम्र के दरवाज़े पर खड़े
नए वर्ष को तो भीतर बुलाना ही होगा
दीवार पर टाँगने के लिए
एक नया कैलेंडर अब लाना ही होगा।

पराग मांदले

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter