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       बदला है कैलेण्डर

 

बदला है कैलेण्डर
सभी कुछ वही है
साल नया कब हुआ

सुबह उठा सोकर तो
धुंध ने लपेटा
सूरज की खिड़की ने
अँधेरा समेटा
ओस खड़ी फूलों पर
ले रही जम्हाई
भिनसारा कब हुआ

बुझी-बुझी आँखों में
अजब सी बिमारी
कारपेट पर लेटी
रात की खुमारी
हाँफ रहा दूर खड़ा
गया साल छुपकर
हो गया धुआँ-धुआँ

एक ऊनी कंबल में
गुरसी के साथ
रात गुजरती है दे
घुटनों में हाथ
फिर बासी रोटी खा
निकला श्रम आज भी
खोदने नया कुआँ

- जयप्रकाश श्रीवास्तव
१ जनवरी २०२१

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