अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

        नये साल में

 

वही पुराना छपका अब तक
और वही पगही
नये साल में भी तो होंगे
गाड़ीवान वही
भरोसे सबकी बाँचें बही

मँहगाई के हैं पौ बारे
कारिंदे उगलें अंगारे
गली गली सौदागर घूमें
बेचें बस मक्कारी नारे
राजा जी अब मौनव्रती हैं-
मुँह पर जमा दही
भरोसे सबकी बाँचें बही

चुन्नू मुन्नू की भी नानी
अबकी जीत गयी परधानी
नाना की तूती बोलेगी
महल बनेगा, छप्पर-छानी
अपनी वही बुतात-
कभी क्या उल्टी गंगा बही
भरोसे सबकी बाँचें बही

सदन हुये बाज़ार सरीखे
अपने ही कर्मों के लेखे
मन की बात, सुनें, समझें, फिर-
अच्छे दिन के सपने देखें
पान पान में भेद न कोई-
क्या बंगला मगही
भरोसे सबकी बाँचें बही

- अनिल कुमार वर्मा
१ जनवरी २०२१

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter