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प्रेम साधना |
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जाते हुए
साल की आख़िरी शाम
जब पी रहा होता हूँ यादों के सुरमई जाम
सरगोशियों में पूछता है नया साल
दुहराता है पुराना फिर वही सवाल
छुड़ा सकूँगा हाथ उससे, जो साथ-साथ चलता है
है तो सच, पर आँखों मे ख़्वाब की सूरत पलता है
जिसकी आँख के सारे आँसू
अभी कल तक मेरे नाम हुए थे
जिसके लबों पर हँसी की ख़ातिर
हम बस्ती-बस्ती नीलाम हुए थे
तुम, हाँ, तुम ही तो थीं
जो अपना दुःख ऐसे कहतीं मुझसे
जैसे कहने भर से हो जाएगा निदान
पर दुनियादारी आएगी मुझे कभी
कहतीं, ऐसा तो नहीं है कोई विधान
है याद
सर्द- गर्म रातों में
यूँ खो जाते हम बातों में
लिए हाथों में गर्म प्याली चाय की
सुधरने को थी बेताब दुनिया
जैसे मुंतज़िर बस हमारी ही राय की
हम दोनों मिलते
तो सौंधी ख़ुशबू से खिलते
धरती पर पहली बारिश से
शुक्राने की नमाज़ हो अदा
जैसे ख़ुदा की नवाज़िश से
अंधेरी रातों में आसमान भी तो
महज़ ख़ाली फ्रेम दिखता
तुम्हारी निश्छल हँसी को सहेज
जो न मैं उस पर "प्रेम" लिखता
कभी चाँद थक कर सो भी जाता
रात- रानी के आग़ोश में
सुबह ए नौ की जुस्तुजू
पर हमें रखती थी होश में
क्योंकि,
पहली बार, मेरे बदन के जंगल ने
तुम्हारी ही रूह की नदी में धुलकर
उगते सूरज की पाकीज़गी को चूमा था
और, खोने से पहले अपने ही अंधेरों में
ठिठककर, मैं वापस घूमा था
पाकर तुम्हारे लबों की मीठी छुवन
अपने ही भीगे पाँव में
पहली बार जाना
ज़िन्दगी, चाहतों का जँगल नहीं
ज़िन्दगी तो बसती हैं इश्क़ के गाँव में
जहाँ नदी किनारे घाट पर आरती और अज़ान
सुनते हैं प्रेम-बाँसुरी ,अब भी लगा कर कान
जहाँ मधुबन की राधिका, मीरा सी साधिका
प्रेम को ही धर्म मान बैठी थी
महकती रूहों की प्यास को
धड़कती साँसों की आस को
सब को दिल से जान बैठी थी
चलो, समयातीत
करें फिर व्ययतीत
नया साल
शब्दों के शोर में नहीं
धड़कनों के मौन में
वही प्रेम
होकर फिर साधनालीन
लम्हों के पोरों पर सदियाँ गुज़ारे
तुम प्रेम दीवानी
करो ध्यान, तो रहो
ईश्वर के उतने ही निकट
जितना स्वंय मैं हूँ प्रेम में तुम्हारे
- नैय्यर उमर अंसारी
१ जनवरी २०२१ |
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