जब आना तुम नये वर्ष

 

 

 

खिलें पुष्प से दिवस सुहाने और झील सा निश्छल मन
अभिलाषा पर्वत के जैसी, छूकर मचले चंचल मन

हरित घाटियाँ, दृश्य मनोरम,
ऐसा कोई एक ठिकाना
दूर विजन के मंदिर में जी भर
मुस्काए मन बेगाना

शुभ्रिम भोर विहँसती आये, रश्मि-रेख को लेकर संग
स्वागत में आगे बढ़कर नित, ओढ़े स्नेहिल वल्कल मन

बन्द प्रीति के द्वार खोल कर
सोई बगिया को झकझोरे
खामोशी की भीति ढहा दें
हर्ष और उत्कर्ष झकोरे

कब ठहराव भला लगता है, चलना ही है जीवन -क्रम
गुंजित हो कलरव विहगों का, बहे नदी सा निर्मल मन

मन बंजारा बात न माने
ऊँच-नीच कुछ समझे ना
थोड़े से उसकी झोली में
कुछ उपहार नये देना

जब आना तुम नये वर्ष तो, रहे नही कोई भी भ्रम
स्वागत हँस करने को आतुर, हुआ खुशी से पागल मन

- प्रो.विश्वम्भर शुक्ल    
१ जनवरी २०१९

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