हम उम्मीदों भर जागे हैं

 

 

 

पूरब वाले दर से आना
छटा नई बिखराते जाना
हम उम्मीदों भर जागे हैं

बेमतलब ही उगे खार की
भिंची मुट्ठियों फँसे ज्वार की
निर्जल घाट व्यथा गुहराते
नदिया लाना बहे धार की
अच्छे दिन अब देखें आँखें
जिनको बुनते हम जागे हैं

बहुत हुआ जो रात घनी थी
कुहा-ठंड में खूब बनी थी
उलझी-सी आँखों में अबतक
बिखरी-बिखरी बर्फ कनी थी
तार-तार है अपनी लोई
सधे हाथ से आ, सुलझाओ
आओ तो.. उलझे धागे हैं

- सौरभ पाण्डेय     
१ जनवरी २०१९

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