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कहाँ नया है साल
 
वही पुरानी झोंपड़पट्टी
वही फटा तिरपाल
सब कुछ वही पुराना है तो
कहाँ नया है साल

पेट चिढ़ाता ही रहता है
सुख-दुःख मारे ताने
नहीं अभी तक पतुकी जानी
अर्थशास्त्र के माने
कर्ज-पहाड़े पढ़ती आई
असफल रोटी-दाल

गँवई से जो शहर गई है
भूख-प्यास की थाली
आजतलक वह शरणार्थी है
साथिन गंदी नाली
परिवर्तन के वंशवाद में
वही देह वह खाल

लोकतंत्र के सूरज जब-तब
आकर छिटके दाने
समाधान के सपने सोये
तकिया रख सिरहाने
नोंच रही है तंग उठौनी
गिन-गिन सिर के बाल

एक आँख का टूटा ऐनक
फटी-फटी है लुंगी
आश्वासन के ताने-बाने
हैं उगाहते चुंगी
अंधेरे में खड़ी स्वच्छता
बदबू से बेहाल

- शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'    
१ जनवरी २०१८

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