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कभी कुहरा कभी
बादल
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कभी क़ुहरा
कभी बादल
खुले मौसम अगर तो
धूप आये आँगने में
भँवर से कश्तियाँ बाहर
कोई कैसे निकाले
लहर बैठी हुई है
मोर्चे अपने संभाले
जहाँ हों पुल बने,
बहुत कमज़ोर नदियों के
भलाई है सम्भल के-
लाँघने में
चली अश्लीलता में
डूबती- तिरती हवाएँ
छपे नववर्ष के
कैलेंडरों पर नग्न मुद्राएँ
हों जिस घर में
बहन, भाई, बहू, बेटी
शरम आती है इन को-
टाँगने में
अचंभा इससे ज़्यादा और
हो सकता है क्या भारी
कला, संगीत, कविता का
है शोषण आज भी जारी
जो देता हो समय को
अदब, तहज़ीब की दुनिया
उमर कटती है, उसकी-
माँगने में
- कृष्ण बक्षी
१ जनवरी २०१८ |
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