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एक साल बीत गया
 
आशाओं के घने बरगद -
असमय ही बुढ़ा गये,
विश्वासों के यूकेलिप्टस –
आपस में टकरा गये,
सत्य के अशोकों की लंबी कतारें-
आँधियों ने झुका दीं,
नीम ने अपनी जड़ें रिश्तों में -
भीतर तक घुसा दीं,
आस्था का चंदन -
धीरे-धीरे घिस ही गया,
और एक साल बीत गया।

कुछ सवाल दीवारों पर-
कैलेंडर बन चिपके रहे,
कुछ जवाब तकिये की ओट ले-
हर वक्त सोए रहे,
शब्दों ने जुबां पर-
जलते कोयले रख लिए,
अनुभूतियाँ ने स्टेटस अपडेट कर
नए-नए अर्थ ढूँढ़ लिए ,
मैं किराए के फिकरों से टेबल पर-
तन्हा कहकहे लगाना सीख गया,
और एक साल बीत गया।

पर जब से उसके चेहरे के-
कुछ पृष्ठ अनायास पढ़े हैं,
उसकी आँखों के जुगनू -
तबसे मेरे पीछे पड़े हैं,
फूल तो चौकन्ने हैं फिर भी-
खुशबूएँ बिखर-बिखर जाती हैं,
रोशनी मेरे कमरे में आकर-
धीमे से धूप मल जाती हैं,
मेरे बदन का पोर-पोर-
तितली की छुअन से भींग गया,
और एक साल बीत गया।

- अमित कुलश्रेष्ठ 
१ जनवरी २०१८

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