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अब नहीं मौसम रहा वो
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जन वही, जीवन वही, पर
देखते ही देखते हर
दिख रही रंगत अलग-सी
अब नहीं मौसम रहा वो
राग अनजाने लिये
द्रुत या विलम्बित, स्वप्न गुनना
अर्थ आभासी सही पर
गीत के सुर-ताल बुनना
गाँव-कस्बा या शहर
हर ओर दीखे मौन पुलकन
पाँव की दुश्वारियों को
चाहतें चाहें न सुनना।
क्या हुआ ऐसा अचानक
अनगढ़े व्यवहार पर भी
मन-मगन उम्मीद से है
जो मिला है, जम रहा वो।
"हो नया कुछ" की गहन-
चाहत घनी हो चू रही है
क्या पता बदलाव क्या हो
पर हवा हर सू बही है
फूँकता जाता पिपिहरी
मुग्ध-मन भी गुनगुनाता-
"छोड़िए अब तक हुआ जो
हो रहा सब कुछ सही है"।
धुँधलके में लक्ष्य, लेकिन
बढ़ रहा जन-जन ठगा-सा
गो कि "अच्छे दिन" सुलभ हैं
जो न ले, बौड़म रहा वो।
- सौरभ पाण्डेय
१ जनवरी २०१७ |
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