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गये बरस की बिखरी किरचें
 
गये बरस की बिखरी किरचें
तलुवे तलुवे लहूलुहान

जंगल पर गिद्धों का डेरा
नीड़ नीड़ पर टिकी निगाहें
चिड़िया पर
संकट गहराया
बंद हुईं पंखों की राहें

आजादी की व्यर्थ कल्पना
हुई निलंबित सभी उड़ान

नए दौर की नयी पीढियाँ
जागरूक बस अधिकारों की
कर्तव्यों के
पाठ पुराने
नयी नीतियाँ बस नारों की

‘संस्कार’ सब घिसे पिटे हैं
भावों पर भारी विज्ञान

दिवस महीने बरस गुज़रते
आवागमन निरंतर चलता
पर अधिकारों
के मुद्दों पर
मानव इक दूजे को छलता

बंजारे हैं सब धरती पर
कौन यहाँ किसका मेहमान

- संध्या सिंह      
१ जनवरी २०१७

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