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दिवस महीना साल गया
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दिवस, महीना, साल गया
कितना कुछ निकल गया
नये-नये में भी मन ढूँढ़े
बिल्कुल नया-नया।
व्याकुल अंतस लिए जी रही
दुबली धार नदी का
गाँव, शहर का कुल उत्सर्जित
ढोती भार नदी का
कल-कल करते निर्मल जल का
चेहरा बिगड़ गया।
पूरे साल न जाने कितने
सपने बुने जतन से
थिगड़े लगे पुराने कपड़े
उतरे नहीं बदन से
छोटे का बेटा कस्बे में
जाकर फिसल गया।
बारिश हुई खेत गर्भाने
गाँव रहे हुलसाये
मुद्राबंदी ने आफत के
नये रूप दिखलाए
खिले हुए आँगन का चेहरा
मलिन-मलान हुआ।
नए साल में फिर सपनों के
खेत गए पलुहाए
हार न माने अपना अंतस
जी भर जान लड़ाए
खिड़की खुली, रोशनी खिल-खिल
बुनती नीड़ बया
- राजा अवस्थी
१ जनवरी २०१७ |
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