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त्योहार गुलबिया
 
नया बरस आया है लेकर
हर घर में त्योहार, गुलबिया
भला बताए कौन तुझे, क्यों?
तीज, पर्व, दिन, वार गुलबिया

सरकारी माकान मिला है
वो भी है पक्का
नाम चढ़ा है उसका, पर
है बेटों, बहुओं का

देख- देख कर खुश होती है
करती झाड़-बुहार गुलबिया

घास-फूस की मिली झोपड़ी
मैली सी धोती
उसके लिये नियामत है बस,
दो सूखी रोटी

जैसे-तैसे गई पेट में
लेती नहीं डकार गुलबिया

उसने पहना है तन-मन पर
अपनों का गहना
नहीं लालसा, इच्छा कोई
क्या किस से कहना

चाह कि मीठे बोल मिलें पर
पा जाती फटकार गुलबिया

देख-देख कर अपनो को बस
खुश हो जाती है
घुप्प अँधेरों से अक्सर
खुलकर बतियाती है

और माँगती जाने क्या-क्या
दोनों हाथ पसार गुलबिया

सुनती रहती सब की बातें
कितनी झूठ सही
परिवर्तन की बड़ी खबर भी
पिछले साल उड़ी

हरी दूब की बात करे कब
घर की खर-पतवार गुलबिया

- कृष्ण कुमार तिवारी
१ जनवरी २०१७

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