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छेड़ो माधव बंसीतान
गूँज उठे कजरारी धरती गूंजे सकल विहान।
छेड़ो माधव बंसीतान
पथरीले नैनों की पीड़ा, बनकर आँसू बह जाए
और टकटकी बिन बोले ही, सब बातें कहती जाए,
सावन-जने अभ्र में उड़ते रसरसाल मेघों को देख
टीस लिए बिरहिन का मन भी भरने लगे उड़ान,
छेड़ो माधव बंसीतान
साँवरिया ओ, रूप सलोना फिर से यूँ झलका देना
किसी राधिका को फिर अपनी, सुधबुध तुम बिसरा देना,
श्याम-साँवली देह-तेज से दमक उठे हर लोचन, और
अवमानित हो गोरेपन की चाह और अभिमान,
छेड़ो माधव बंसीतान
बने द्वारका के राजा तुम, भूल गए फिर गोपीगाँव
राजसभा में चले न लौटे, ब्रज वीथी में तेरे पाँव,
राजठाठ में मगन कि तुमने, दे डाली कितने अपनों को
अंतहीन रहतकी, बिलखती ममता की राहें सुनसान
छेड़ो माधव बंसीतान
अबकी भादों हो आना तुम ज़रा देर वृन्दावन को
वही जसोदा तुम्हे मिलेगी तकती सूने आँगन को,
वही गाय के झुण्ड वही सब ग्वाल वही यमुना धारा
सिंहासन को छोड़ ज़रा उस माटी को देना सम्मान
छेड़ो माधव बंसीतान।
--संस्कृता मिश्रा
३० अगस्त २०१०
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