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कल रात मनवीथिका में टहलते
पीछे से किसी ने ढाँप लीं आँखें
मुश्कें कस दीं पीताम्बर से
और पीठ पर अड़ाकर वंशिका
कहा,स्वर को भरसक सख्त करके:
लाओ-दो,जो कुछ है तुम्हारे पास,चुपचाप!
रे छलिये, चोर कहीं का!
पहले जब साँवरिया सेठ का रचकर स्वाँग
तूने रखा था तुला पर एक ओर मेरा सर्वस्व
अपने मोरपंख के बदले
बिक तो मैं तभी गया था
अब, बचा है एक नग आँसू
ले, इसे भी ले ले!!
उन हथेलियों की कस्तूरीगंध
आँखों को महकाकर
समा गयी है पोर-पोर
और, मैं नाच रहा हूँ
ख़ुशबू से सराबोर!
- विकासानंद
१८ अगस्त २०१४ |