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हे प्रभु मोर मुकुट धरि आओ
     

 





 

 


 




 


हे प्रभु ! मोर मुकुट धरि आओ
फिर गीता का पाठ पढ़ाओ।

लेकर यक्ष प्रश्न होंठों पर
कितने अर्जुन राह निहारें।
फिर यमुना के तट हैं प्यासे
दीन-हीन हो तुम्हें पुकारें।
बंसी की कोई तान सुनाने
फिर यमुना के तट पर आओ॥

दुर्योधन, दुशासन, शकुनी
फ़ेंक रहे है पाँसे छल के।
आओ रूप विराट बनाकर
छक्के छूटें पापी दल के।
चक्र सुदर्शन लेकर प्रभु जी
पाप अधर्म समूल मिटाओ।

विरले हैं, पर हैं मेरे प्रभु जी
अब भी भक्त तुम्हें सत्कारें।
वेद ऋचाएँ बनी गोपियाँ
चरण कमल पर तन मन वारें।
बनकर प्रेम देव सुखसागर
भक्तों से फिर मिलने आओ।

झूठ, पाप, छल बहुत बढ़ा है
पहुँचा है अब धर्म रसातल।
है चहुँ ओर अधर्म व्यापता
आन संहारो अब पापी दल।
कितने कंस, दुशासन कितने
फिर आकर पापी संहारो।

- सतपाल ख़याल
१८ अगस्त २०१४

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