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मन तो कबसे वृंदावन-सा
     

 





 

 


 




 


मन तो कब से वृन्दावन-सा
कान्हा का कुछ पता नहीं

जिसके मोह में कारी बदरी
ठगी ठगी सी घूम रही
नीली चुनरी ओढ़े संध्या
जिसके रंग में झूम रही
बंजारन सी ढूँढूँ उसको
कहाँ छिपा, कुछ पता नहीं

कुञ्ज गली की भूल भूलैयाँ
कितनी मुश्किल आन पड़ी
गोपिन के संग अलख जगाई
यमुना तीरे आन खड़ी
बीच धार अब डोले नैया
माँझी का कुछ पता नहीं

कुछ तो कह दो, कब तक ऐसे
आँख मिचौनी खेल चले
हुई पराजित, सुध-बुध हारी
ओट छिपे, क्यों और छले
मीरा–राधा भेद न खोलें
बंसी का कुछ पता नहीं

-शशि पाधा
२६ अगस्त २०१३

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