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प्रतीक्षा
     

 





 

 


 




 


टूट जाते हैं बंधन
उफान पर हो आती है यमुना
आधी रात
एक टोकनी में
पार करता है
समय नदी को
द्वापर का भविष्य।

प्रेम सिन्धु में
डूबता उतराता है
ब्रज का वर्तमान
बाँसुरी की तान
प्रेम के एकांत को लिए जाती है
समय धारा के पार।

जल्द ही उसे जाना होगा
और नहीं होगा लौटना
कालिंदी की रगों में बहता जल
श्याम ही रह जायेगा
कदम्ब स्तब्ध रहेगा सदियों
अश्रु की एक बूँद
भिगो देगी सृष्टि के नयन
सृष्टा के चरण
बियाबान हो जायेगा
सदा सदा के लिए ब्रज में काल।

ज़रा के बाण बेध सकेंगे
महाभारत के
अभेद्य सारथी के
बरसों पहले
अश्रु सिंचित कोमल चरण
रक्त बूँद बूँद बहता रहेगा
उसे अनश्वर से नश्वर
देह से आत्मा में तब्दील करता
एक याद कौंध जायेगी प्रस्थान से पहले
और मन हो जायेगा फिर सत्रह का
ईश्वर प्रेम में मानव बन बैठेगा
और राधा ईश्वर हो जायेगी।

अब भी उफनती है यमुना
टूटते है कारागार
बहती है कालिंदी
और गूँजती है बाँसुरी
पर गढ़े जाते हैं बस
पत्थर के ईश्वर।

समय जैसे प्रतीक्षा में है
एक जन्म की
जिसे वह फिर ईश्वर कर सके
और प्रेम भी राह देखता सा
कि बाँसुरी के पोर में फिर गूँजे पवन
कान्हा का मन
और श्याम शिलाओं की देह
पत्थर से तब्दील हो सके
हाड़ माँस में।

-परमेश्वर फुंकवाल
२६ अगस्त २०१३

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