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घनश्याम विदा जब गोकुल से
     

 





 

 


 




 


गोपियों और राधा रानी के मन की व्यथा

दुर्मिल
घनश्याम विदा जब गोकुल से सखि होत रहे हम ठाढ़ रहे
यमुना जल बाढ़ गयो इतना बरसे सखि ज्योंरि अषाढ़ रहे
सब ग्वाल निढाल भये ब्रज के अरु डाल कदम्ब कि ठाढ़ रहे
वृषभान लली तट सोच रही छलिया हिय केर प्रगाढ़ रहे

मत्तगयन्द
आज प्रभात सुहात न गोकुल साँझहि श्यामहि संग भली थी
यौवन सून पड़ा तुमरे बिन सोचत क्यों मन संग चली थी
फूल खिलाकर शूल दयो हिय कान्ह भली बदरंग कली थी
रोकर हाल सुनाय रही तट वो यमुना बृष भान लली थी

मत्तगयन्द
नैन विशाल हवे जिनके सखि मोर पखा सिर सोह रही है
है अधरों बिच बाँसुरि शोभित ऐसन मूरत मोह रही है
भूलि गयो वह गोकुल श्यामहि गोपिन खोजत खोह रही है
बाँवरि हो वृषभान लली अब बाट तिहारहि जोह रही है

श्यामसुंदर के मन की व्यथा

मत्तगयन्द
देह नही सुधि गेह नहीं सुधि छूटि गयो ब्रजधाम जभी से
चैन नही दिन रैन सखे अबशूल लग्यो हिय जोर तभी से
याद सतावत गोपहि ग्वालन माखन खायहु नाहि कभी से
क्रूर अक्रूरहि दूर कियो मोहि तातहि बात कह्यो य सभी से

मत्तगयन्द
और लिखा ख़त एक रखा पिय नाम छुपाय रखा कमली से
देखत ही ख़त नैन गिरे जल काँपत होंठ लगे बिजली से
नैन मिले तब चैन मिले कह जाकर दो वृष भान लली से
रास न आवत राज सिंहासन छूटत बाँसुरि है अँगुली से

चिदानन्द शुक्ल "संदोह"
२६ अगस्त २०१३

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