अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

प्रभु कुञ्जबिहारी
     

 





 

 


 




 


पाञ्चजन्य-का
दिव्य नाद या
कामबीज-की स्वरलहरी
कृष्ण तुम्हें
जितना भी सोचें
प्रीति बढ़े उतनी गहरी

लहक-महक जाए कदम्ब
जब ध्यान तुम्हारा हो आए
उछल-उछल चूमे कछार
जमुना भी सुध-बुध बिसराए
चंचल मन
वन-वन डोले
जो पवन अनमनी हो ठहरी

रासरचैया-की रसबतियाँ
सुन-सुन रीझें धरा-गगन
वासकसज्जा-सी ऋतुएँ
कूजन-कूजन गुंजन-गुंजन
साधु मुदित हों
खल खीझें
जय जय जसुमति के लाल हरी

तुम्हें समर्पित होकर जीवन
रत्नाकर रसखान बने
कभी गुने गीता का दर्शन
और उद्धव का ज्ञान बने
खिले चतुर्दिक
पुण्य-पूर्णिमा
मिटे पातकी दोपहरी

सखा बन्धु सारथी नाथ
सब रूप तुम्हारे मनमोहन
दुःख हर लेता मंगलकारी
लीलाओं-का शुभ सुमिरन
बलिहारी प्रभु
कुञ्जबिहारी
प्रेम-सुरभि अग-जग छहरी !

--अश्विनी कुमार विष्णु
२६ अगस्त २०१३

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter